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छत्‍तीसगढ़ की कला, साहित्‍य एवं संस्‍कृति पर संजीव तिवारी एवं अतिथि रचनाकारों के आलेख

लूट का बदला लूट: चंदैनी-गोंदा

  विजय वर्तमान चंदैनी-गोंदा को प्रत्यक्षतः देखने, जानने, समझने और समझा सकने वाले लोग अब गिनती के रह गए हैं। किसी भी विराट कृति में बताने को बहुत कुछ होता है । अब हमीं कुछ लोग हैं जो थोड़ा-बहुत बता सकते हैं । यह लेख उसी ज़िम्मेदारी के तहत उपजा है...... 07 नवम्बर 1971 को बघेरा में चंदैनी-गोंदा का प्रथम प्रदर्शन हुआ। उसके बाद से आजपर्यंत छ. ग. ( तत्कालीन अविभाजित म. प्र. ) के लगभग सभी समादृत विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समीक्षकों, रंगकर्मियों, समाजसेवियों, स्वप्नदर्शियों, सुधी राजनेताओं आदि-आदि सभी ने चंदैनी-गोंदा के विराट स्वरूप, क्रांतिकारी लक्ष्य, अखण्ड मनभावन लोकरंजन के साथ लोकजागरण और लोकशिक्षण का उद्देश्यपूर्ण मिशन, विस्मयकारी कल्पना और उसका सफल मंचीय प्रयोग आदि-आदि पर बदस्तूर लिखा। किसी ने कम लिखा, किसी ने ज़्यादा लिखा, किसी ने ख़ूब ज़्यादा लिखा, किसी ने बार-बार लिखा। तब के स्वनामधन्य वरिष्ठतम साहित्यकारों से लेकर अब के विनोद साव तक सैकड़ों साहित्यकारों की कलम बेहद संलग्नता के साथ चली है। आज भी लिखा जाना जारी है। कुछ ग़ैर-छत्तीसगढ़ी लेखक जैसे परितोष चक्रवर्ती, डॉ हनुमंत नायडू जैसों

बस्तर मे आदिवासियों का माटी तिहार और उल्लास

बस्तर के आदिवासियों का जीवन तथा सारा अस्तित्व जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत माटी से ही जुड़ा होता है। माटी के बिना वह स्वयं की कल्पना नहीं कर सकता। बस्तर के आदिम जनों का मानना है कि माटी जन्म देने वाली मां से भी ज्यादा पूजनीय है, स्नेहमयी है क्योंकि वही जीवन का आधार है। गांव का प्रत्येक व्यक्ति माटी की कीमत समझता है, तभी तो बस्तर का प्रत्येक ग्रामीणजन माटी किरिया को सबसे अधिक महत्व देता है। उसके लिए माटी की कसम से बढ़कर इस पृथ्वी में दूसरी कसम नहीं है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि यहां का आदिम समाज मुख्यतः कृषि पर आधारित है।
चैत्र माह के प्रारंभ होते ही बस्तर के आदिम जन माटी तिहार या बीज पूटनी नामक त्योहार बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाते हें। बीज बोने के पूर्व यहां के ग्रामीण जन इस त्योहार को सदियों से मनाते आ रहे हैं। इस दिन ग्रामीण जन अपनी माटीदेव की पूजा अर्चना करते हैं तथा अपने खेत के लिए बीज धान निकालकर पलास के पत्तों से पोटली बनाकर रख लेते हैं। इन छोटे-छोटे बीज के पोटली को ग्रामवासी माटी देव स्थल एकत्र करके अपने माटीदेव की पूजा करते हैं। इस दिन सामूहिक रूप से बलि दिये गये जीवों को पकाकर आपस में वितरित करते हें। जिसे प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते हैं।
इस त्योहार की एक प्रमुख विशेषता है कि इस उत्सव में स्त्रियां भाग नहीं लेती और नही इसका प्रसाद ग्रहण करती है। यह परंपरा कुंवारी लड़कियों पर भी लागू होता है। इस दिन सूर्योदय से पूर्व ही ग्रामीण अपने-अपने घरों से बीज की पोटली बांधकर निकल पड़ा है आने वाले वर्ष में अच्छी फसल की कामना के लिए। सुबह से ही रास्ते में रोड़ा बनाकर प्रत्येक आने जाने वालों से पैसे, अनाज, सब्जी आदि एकत्र करते हैं। इस बीच अश्लील शब्दों का प्रयोग निरंतर जारी रहता है जो कि इस त्योहार की अपनी एक अलग परंपरा है। इस उत्सव में बच्चे,बूढ़े, जवान सभी सम्मिलित होते हैं सिवाय महिला एवं लड़कियों को छोड़कर किंतु दंतेवाड़ा जिले के कुछ क्षेत्रों में महिला एवं युवतियों को भी रास्ते में रोड़ा लगाये देखा जा सकता है। अनाज, पैसे एकत्र करने का सिलसिला शाम ढले तक तथा कभी-कभी दूसरे दिन तक चलता रहता है। इस एकत्र किये हुए पैसे तथा अनाज को सामूहिक रूप से आयोजित भोज में सम्मिलित कर लिया जाता है।
बीज पूटनी त्योहार के एक दिन पूर्व गांव के समस्त बड़े-बूढ़े मिलकर अपने पारंपरिक हथियारों से लैस होकर पास के जंगलों में पारद (शिकार) करने निकल जाते हैं। तथा शिकार से प्राप्त जंगली जीवों को लेकर माटी को समर्पित करते हैं तथा प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते हैं किंतु अब न तो घने वन हैं और न ही वन्य जीव जहां ग्रामीण अपने परंपरा के निर्वाह के लिए एक चूहा भी पकड़ सकें। वैसे भी वन्य जीवों के शिकार पर शासन ने प्रतिबंध किया हुआ है। ग्रामीण सिर्फ खानापूर्ति के लिए पास के जंगलों में घूम आते हैं तथा प्रतीक स्वरूप मुर्गा अथवा मुर्गी के अण्डों को बलि देकर अपने पारंपरिक उत्सव का निर्वहन कर लेते हैं। इसके अलावा गांव में जो भी कास्तकार होते हैं सभी से चंदा स्वरूप कुछ पैसे लेकर बाजार से बलि के लिए बकरा खरीद लेते हैं तथा अपने परंपरा का निर्वहन कर लेते हैं। 
पूजा-अर्चना में लगने वाले पूजन सामग्री के अलावा चूड़ी-फुंदड़ी, मदिरा भी होते हैं जिसके अर्पण पश्चात ग्रामीणजन भी ग्रहण करते हैं। पूजा-पाठ के बाद माटी देव स्थल के पास ही छोटा गड्ढा किया जाता है जिसे पानी और मिट्टी से कीचड़मय बना दिया जाता है तथा पूजा के पश्चात धान की छोटी-छोटी पोटलियों को पुजारी की गोद में डाल दिया जाता है फिर प्रारंभ होता है कीचड़, मिट्टी से लथपथ अश्लील गालियों की बौछार और साथ ही होली सा माहौल। इसके पीछे मान्यता है कि ऐसा करने से खेत में बिहड़ा तथा अच्छी फसल होने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होगी। माटीदेव उनकी फसल की रक्षा करेंगे। इसके बाद रात्रि में सभी ग्रामीणों के द्वारा लाये गये धान की पोटलियों को पुजारी के निवास स्थान में ले जाया जाता है तथा दूसरे दिन गांव के बड़े-बुजुर्ग के साथ मिलकर स्वयं पुजारी, जिन ग्रामीणों के यहां से धान लाया गया होता है, पहुंचाता है और बदले में पारिश्रमिक बतौर रूपये लेता है। माटी त्योहार के बाद पुजारी द्वारा पहुंचाये गये इस धान की पोटली के साथ ही धान की बुवाई तक पोटलियों को सुरक्षित रखा जाता है। 
इस तरह प्रथम दिन पारद से लेकर पूजा-अराधना के पश्चात घर-घर धान पहुंचाये जाने तक तीन दिनों तक माटी त्योहार प्रत्येक गांव में चलता है। माटी त्योहार के एक हफ्ते के बाद आमा तिहार मनाते हैं। इस त्योहार में बस्तर के आदिमजन बिना इष्ट देवी-देवताओं को चढ़ाये आम खाने की शुरूआत नहीं करते। इस दिन आम तोड़कर पहले अपने इष्ट देवी-देवताओं को समर्पित करता है तत्पचात आम खाना प्रारंभ करता है। बस्तर के ग्रामीणजन वर्ष भर उत्सव मनाता है। शायद ही कोई माह किसी पर्व या उत्सव के बिना रहता है। सभी के केन्द्र में अभावों के बावजूद खाना-पीना तथा हंसी खुशी होती है। सभी पर्वों में पशु-पक्षियों की बलि तथा मदिरा, सल्फी का वृहत आयोजन होता है। देवी-देवताओं की कल्पना लोक में खोया बस्तर का आदिम समाज दिल को दहला देने वाली गरीबी में भी कितना खुश नजर आता है, वह इन उत्सवों में देखा जा सकता है।

नई दुनिया के बस्तर संस्करण से साभार

टिप्पणियाँ

  1. परंपराओं के बारे में सुन्दर सामग्री ।

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  2. यह त्योहार धान की फसल में से बीजों को अगली बुआई के लिए सुरक्षित रखने के रिवाज को अभिव्यक्त करता है।

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  3. महत्वपूर्ण जानकारी पढ़ने को मिली ।

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  4. ...प्रभावशाली व महत्वपूर्ण जानकारी !!!!

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  5. aisa lag raha hai jaise aap kuchh din vaha bitaa kar aaye ho..

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